पत्रकारिता की नौकरी से क्यूं हुआ मोहभंग, डिग्री के बाद दूसरे क्षेत्रों में आजमा रहे करियर
Online desk, bhopal
पिछले दस साल में पत्रकारिता विश्व विदयालयों से निकले छात्रों की संख्या और मीडिया में काम कर रहे युवाओं की संख्या को देखे तो एक बात साफ नजर आयेगी, वह है कॉलेज से पत्रकारिता की पढ़ाई कर निकले छात्र मीडिया में करियर नहीं बना रहे है. वह डिग्री लेते समय ही जब इंटर्न बनकर मीडिया चैनल और अखबार में काम करते है, तब वह मीडिया प्रोफेशन के बारे में अधिक जान जाते है. मीडिया सेक्टर में सैलरी, सुविधाएं, जॉब सिक्योरिटी न के बराबर है. यह बात युवाओं को पता चल जाती है. इसके बाद गिने चुने लोग ही है, इतनी कठिन परिस्थितियों के बाद भी मीडिया में करियर बनाते है, और सफल भी होते है. हालांकि इसकी संख्या बहुत कम है. मीडिया सेक्टर में जमे जमाए लोगों के लिए ज्यादा अवसर बनते है. नए लोगों को अनुभवहीन करार देकर कम चुनौतीपूर्ण कार्य दिये जाते है. इस वजह से पत्रकारिता का पेशा युवाओं को खास पसंद नहीं आ रहा है, युवा अब भी डाॅक्टर, इंजीनियर या सरकारी नौकरी के प्रति आकर्षित है। बड़ी संख्या में पत्रकारिता की डिग्री लेने के बाद सरकारी नौकरी के लिए फार्म भरते है. जबकि डिग्री के बाद वह फील्ड में काम करने को लेकर तैयार हो जाते है, बावजूद छात्र पत्रकारिता नहीं करते है. वहीं राज्य ओर केंद्र सरकार पत्रकारिता विश्व विदयालयों को करोड़ों का बजट देती है. बजट से भवन निर्माण के कार्य तो होते है, लेकिन विश्व विदयालय नए नए कोर्स और रिसर्च पर बिल्कुल भी राशि नहीं खर्च करते है.
पत्रकार की चिंता किसी को नहीं-
पत्रकारिता में ठहराव और अवसरों की कमी के कारण युवा पत्रकारिता की नौकरी करने से बच रहे है. पत्रकारिता को छोड़कर उसके बाय प्रोडक्ट या अन्य धंधों में काम करने को मजबूर हो रहे है. पत्रकारिता में सैलरी स्ट्रक्चर और अवसरों की समानता, एडिटर पोस्ट के लिए युवाओं को मौके मिलना शुरू हो जाये तो हालात सुधर सकते है. हालांकि देश के कुछ खास और चुनिंदा पत्रकारों ने आकुत संपत्ति एकत्रित कर ली है, लेकिन इन धन्ना सेठ पत्रकारों ने कभी पत्रकारिता के पेश में आ रही गिरावट को लेकर चिंता जाहिर नहीं की. वह तो इस बहती गंगा से अधिक से अधिक बंटोरना के मन से यहां बने हुए है. युवाओं को जो संसाधन और अवसर मिलना चाहिये, उस पर कब्जा जमाए हुए है. आज भारत के 99. प्रतिशत पत्रकारों की हालत चिंतनीय बनी हुई है। पत्रकार की चिंता ना तो सरकार को है और ना ही समाज को। पत्रकार दबे कुचले लोगों की आवाज बनता है, लेकिन उसकी आवाज कोई नहीं बनता है.
पत्रकारिता की नौकरी में पिछले दस साल में बिगड़े हालात
ऐसा पिछले दस साल में क्या हुआ कि पत्रकारों के हाल सुधरने के बजाय बिगड़ते जा रहे है। इसके पीछे सरकार की नीतियां भी जिम्मेंदार है। साथ ही उन संस्थानों की जिम्मेंदारी भी कम नहीं है, जो बिना जानकारी को परखे जाॅब दे देते है। गौरतलब है कि बीते कुछ सालों में पचास प्रतिशत से ज्यादा युवाओं ने पढ़ाई तो पत्रकारिता की है, लेकिन जाॅब वह नहीं कर रहे है। बल्कि दूसरे सेक्टरों में जाॅब करना पसंद कर रहे है।
कम पगार में काम करने को तैयार
छोटे शहरों में तो पत्रकारों के पास काम तो बहुत है, लेकिन पगार बड़े शहरों की तुलना में बहत ही कम है। कुछ जगहों पर पत्रकार ठेके पर काम कर रहे है, कमिशन पर रखे जा रहे है. ऐसे में जिन पत्रकारों ने इस पेशे को अपने जीवन के पंद्रह साल दिये है, वह हताश होने को मजबूर है. कई सीनियर पत्रकार जिनको अधिक सैलरी पर रखा गया था, कोविड और लॉक डाउन के बाद उनकी नौकरियां चली गई. लॉक डाउन में हजारों पत्रकारों की नौकरियां गई है. जिन पत्रकारों की नौकरियां गई है, उनको राज्य और केंद्र सरकार के द्वारा कोई मदद नहीं की गई.
ब्लैकमेलिंग आम चलन बनता जा रहा है-
पत्रकार के पास साधन तो होते नहीं है। पगार भी घर खर्च के लायक नहीं मिलती है। कई संस्थान में तीन माह में एक सैलरी मिलती है। ऐसे में हर पत्रकार खबर के बदले या तो कोई सरकारी ठेका या पैसे मिलने की आशा रखता है. हालांकि पत्रकारिता पेशे में अब भी इमानदार लोगों की कमी नहीं है. लेकिन उन ईमानदार पत्रकार को ठिकाने लगाया जा रहा है. ऐसे में वो या तो यूटयूब या वेबसाईट चलकार स्वतंत्र पत्रकार बनकर काम कर रहे है. आपको यह जानना जरूरी है कि पत्रकारिता में दूसरे पेशे की तुलना में अधिक चुनौतियां है. फिर भी पत्रकारों को कोई सुविधा नहीं मिलती.
टीवी के बेतुके एंकरों ने बिगाड़ी छवि-
24 घंटे के न्यूज चैनल 2014 से केवल एक तरह का एजेंडा सेट करने में लगे हुए है. इन चैनल के मालिकान के कई धंधे है। जिसके लिए सरकार के पीआर मैनेजबर बने हुए है.केवल और केवल हिन्दु मुसलमान या पाकिस्तान पर डिबेट करा रहे है। पांच सालों में अगर प्राइम टाइम का समय देखे तो 80 प्रतिशत समय मीडिया ने सरकार के एजेंडे को सेट करने में लगा दिये है। एजेंडा सेट करने के बदले चैनल मालिकों को लंबा चौड़ा पैसा भी मिला होगा। इसकी जांच कोई नहीं कर रहा है। चुनिंदा एंकरों को छोड़कर अधिकांश पत्रकार रोजमर्रा के खर्चो के लिए भी परेशन होते नजर आते है.
सोशल मीडिया ने बनाया सबको पत्रकार-
सोशल मीडिया आने के बाद पत्रकारों की छवि में गिरावट आई है। सोशल मीडिया चलाने वाला वीडियो या खबर अपलोड कर स्वयं पत्रकार बन रहा है। हालांकि उसके कंटेट की जानकारी नहीं होती है। साथ ही साथ समाज पर उस खबर का क्या असर होगा। इसकी भी समझ नहीं होती है। इस वजह से फेक न्यूज ने ओरिजनल न्यूज को दबा दिया है। केंद्र सरकार को एडवोकेट की तरह पत्रकारों को भी लायसेंस दिया जाना चाहिए। जिससे गलत न्यूज चलाने पर लाइसेंस केंसल होने का डर बना रहे. साथ ही सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही फेक न्यूज को नियंत्रित करना चाहिये.