बौद्ध धर्म के सिद्धांत, धर्म की शिक्षा-नियम, चार आर्य सत्य और बुद्व के जीवन से संबंधित पांच महान घटनाएं
गौतम बुद्व (Lord Buddha) का जीवन बौद्व धर्म के संस्थापक के संबंध में अति महत्वपूर्ण जानकारी…
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बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम अथवा सिद्वार्थ का जन्म कपिलवस्तु के शाक्य नामक श्रत्रिय कुल में लुंबिनी (नेपाल) में 563 ई.पू. में हुआ था. उनकी मां माया समीपवर्ती कोलीन नामक स्थान पर कुल की राजकुमारी थी. अशोक के मशहूर रूम्मिनदेई अभिलेख में बुद्ध की स्थानीयता का जिक्र है. बच्चे के प्रसव के दौरान माया के देहांत के कारण इनका पालन उनकी मौसी तथा सौतेली मां प्रजापति गौतमी द्वारा किया गया.उनके अन्य संबंधियों में शुद्धोधन (पिता), यशोधरा (पत्नी), राहुल (पुत्र) तथा चचेरा भाई देवदत्त थे.
इस घटना ने संसार के प्रति तीव्र घृणा पैदा कर दी-
एक जर्जर शरीरधारी वद्व, एक रोग ग्रस्त व्यक्ति, एक मृत व्यक्ति तथा एक सन्यासी के दृश्यों को देखने के बाद सिद्धार्थ के मन में संसार के प्रति तीव्र घृणा पैदा कर दी.उन्हें सांसारिक आनंद व्यर्थ लगने लगा.पुत्र के जन्म के बाद उन्होंने 29 वर्ष की आयु में सत्य की खोज में घर छोड़ दिया.यह गृह त्याग महाभिनिष्क्रमण के नाम से जाना जाता है. अगले छह साल उन्होंने एक संन्यासी की तरह दो ब्राह्मण आचार्यों से निर्देशित होते हुए तथा घूमते हुए बिताए. पहले आलार कलाम ने उन्हें वैशाली में ध्यान योग की तकनीक सिखाई, बाद में उन्होंने राज-गृह में उददक अथवा रामपुत्र से शिक्षा ग्रहण की. शिक्षा से संतोष नहीं होने पर उन्होंने काफी संयमपूर्वक रहते हुए कठोर प्रायश्चित किए तथा सत्य की प्राप्ति के लिए निरर्थक प्रयास किए. तब उन्होंने प्रायश्चित छोड़कर निरंजना नदी (आधुनिक लीलाजन) में स्थान किया और आधुनिक बोध गया में एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यानमग्न हो गए. यहीं 35 वर्ष की आयु में उन्हें सर्वोच्च ज्ञान तथा बुद्धि की प्राप्ति हुई. उन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई कि चरम शांति तो उनके अपने ह्रदय में है, और इसे वहीं खोजा जाना चाहिए. इसे संबोधि कहा जाता है. तब से उन्हें (lord Buddha) बुद्ध (प्रबुद्ध व्यक्ति) तथा तथागत (जिसने सत्य को पा लिया हो) कहा जाने लगा. इसके बाद उन्होंने बनारस के निकट सारनाथ में अपना पहला धर्मोपदेश (धर्म चक्र परिवर्तन) दिया. जिसकी वजह से उनके पांच सदस्य बन गए. 45 वर्षों तक प्रचार के बाद 483 ई.पू. उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में एक साल वृक्ष के नीचे उन्हें निर्वाण प्राप्ति हुई. अपनी मृत्यु से पहले बुद्व पावापुरी में चुदं नामक सुनार के घर रहे थे. कहा जाता है कि वहीं शुकरमददव से वे उदरविकास से पीड़ित हए, जिससे उनकी मृत्यु हुई.सुभद्र नामक भ्रमणशील परिव्राजक तथा उनके प्रिय शिष्य आनंद ने उनका अंतिम उपदेश सुना था. उनके शब्द थे कि ”सभी वस्तुए क्षरणशील है और तुम्हें अपना पथ प्रदर्शक स्वयं होना चाहिये” पहले दीक्षित होने वालों में उनके पांच शिष्यों में एक अस्सजि द्वारा दीक्षित किए गए राजगीर के दो संन्यासी सारिपूत्र (sari Putra) तथा मोग्गलान (moggalan) काफी प्रसिद्ध थे. चन्न (उनका सारथी), कथक (उनका घोड़ा), उन्हें ध्यान योग सिखाने वाले आलार कलाम तथा बोधगया में उन्हें खीर का भोजन कराने वाली कृषक कन्या सुजाता आदि बुद्ध के जीवन से संबंद्व महत्वपूर्ण नाम है.
बुद्व के जीवन से संबंधित पांच महान घटनाएं एवं उनके प्रतीक
- जन्म-कमल तथा सांड
- गृहत्याग-अश्व
- निर्वाण-बोधिवृक्ष
- परिनिर्वाण-स्तूप
बुद्ध के उपदेश- बौद्ध धर्म के सिद्धांत-बौद्ध धर्म क्या है
lord buddha ने सुनिर्दिष्ट सिद्वांतों के बजाय तार्किक अध्यात्मिक विकास की बात की. उन्होंने वेदों की अलंघ्यता का खंडन किया.निर्मम पशुबली का विरोध किया.जटिल, विस्तृत तथा अर्थहीन कर्मकांडों की निंदा की.जाति प्रथा तथा पुरोहित वर्ग के प्रमुख को चुनौती दी एवं ईश्वर के बारे में अज्ञेयवादी दृष्टिकोण अपनाया.
चार आर्य सत्य-
- विश्व दुखमय है- (दुक्ख)
- तृष्णा दुख के मूल में है-(तृष्णा)
- इच्छाओं के त्याग से ही दुख निरोध संभव है
- अष्टांगिक मार्ग दुःख निरोध-गामिनी प्रतिपदा है.
आष्टांग मार्ग – ये आठ मार्ग है
- सम्यक दृष्टि
- सम्यक संकल्प
- सम्यक वाणी
- सम्यक कर्म
- सम्यक आजीव
- सम्यक व्यायाम
- सम्यक स्मृति
- सम्यक समाधि
बौद्ध धर्म के अन्य सिद्धांत-baudh dharm-buddha dharma-बौद्ध धर्म की विशेषताएं
निर्वाण शब्द का अर्थ है- ‘दीपक का बुझ जाना’ अथवा अपनी सभी तृष्णा एवं वेदना का अंत है. यह मात्र शारीरिक अनुपस्थिति अथवा सब कुछ समाप्त हो जाना नहीं है. जो व्यक्ति सभी तृष्णाओं एवं लालसा से दूर है, वहीं चरम शांति का अनुभव कर सकता है. वह बारंबार जीवन मरण के चक्र से छुटकारा प्राप्त कर सकता है.बुद्ध (lord buddha) ने जिस दूसरे सिद्धांत पर सबसे अधिक बल दिया है वह है कर्म का सिद्धांत. उनके अनुसार वर्तमान एवं आगामी जीवन में मानव की स्थिति उसके अपने कर्म पर निर्भर है. हम अपने ही कर्म-फल प्राप्ति के लिए बार बार जन्म लेते है. यहीं कर्म का सिद्धांत है.पापकर्म से निवृति के बाद ही इस चक्र से छुटकारा मिल जाता है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है. बुद्ध को अज्ञेयवादी कहा जा सकता है, क्योंकि उन्होंने ईश्वर को स्वीकार अथवा अस्वीकार नहीं किया.उन्होंने अनेक गठित प्रश्नों जैसे ईश्वर एवं आत्मा की प्रकृति में उलझने से इंकार कर दिया. प्रश्न किए जाने पर इस संबंध में या तो वे मौन रहे, या उन्होंने देवताओं के भी कर्म के सिद्धांत के अंतर्गत होने की बात कहीं. प्रतीत होता है कि वे मानव की मुक्ति में ज्यादा रूचि लेते थे, तथा उन्होंने अन्य प्रश्नों से परहेज किया.बुद्ध का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत आत्मन अथवा अतत (आत्मा अथवा अहम) से संबंधित है. उन्होंने अनात्मवाद की शिक्षा दी.
बौद्व संघ और भिक्षु और भिक्षुणियों के लिए बनाए कठोर नियम-बौद्ध धर्म का इतिहास
बुद्ध के दो प्रकार के अनुयायी थे. भिक्षु (संन्यासी) तथा सामान्य उपासक.भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों के अध्ययन एवं मनन में सहायता के लिए मठों का निर्माण किया जाता था. धीरे धीरे ये मठ बौद्ध धर्म का उपदेश देने वाले दार्शनिकों एवं धर्मवेत्ताओं के विकास के एकेडमिक केंद्र बन गए. संघ में प्रवेश की प्रक्रिया बिल्कुल सरल थी.प्रवेश के इच्छुक व्यक्ति को मुंडन कर तथा पीले वस्त्र धारण करके स्थानीय संघ के प्रमुख के समक्ष त्रिरत्न (बुद्व धर्म, संघ) के प्रति अपनी निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी. इसके बाद उसे दस शीलों को मानना पड़ता था. उसे किसी भिक्षु के पास आवश्यक प्रारंभिक शिक्षा गृहण करनी पड़ती थी. फिर उस भिक्षु को सभा के सामने स्वयं को विधिवत संघ में लिए जाने का अनुरोध करना पड़ता था.स्वीकृति के बाद उसे भिक्षु के रूप में नियुक्त कर लिया जाता था. उसके बाद उसे संघ के अनुशासन एवं इसके नियमों का पालन करना पड़ता था. संघ का संचालन गणतांत्रिक आधार पर होता था. संघ के संचालक के पास अनुशासन पालन करवाने की शक्ति होती थी. इसका उल्लंघन करने वाले सदस्यों को दंडित करने का अधिकार भी था. सभा की बैठक के समय भिक्षु तथा भिक्षुणी अपनी वरिष्ठता के अनुसार अपना स्थान ग्रहण करते थे. सामान्यतः: जिस सभा में जब तक कम से कम दस सदस्य उपस्थित न हो, सभा वैध नहीं समझी जाती थी. नए भिक्षु तथा स्त्रियों को मत देने अथवा इस सभा में शामिल होने का अधिकार नहीं था. भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों का जीवन कठोरता से भरा हुआ एवं दस शीलों द्वारा संचालित होता था. भिक्षुओं के लिए मालाओं, इत्र तथा निजी सजावट की अन्य वस्तुएं निषेध थी. भिक्षुणियों के लिए प्रतिबंध ज्यादा थे. गौतम बुद्व स्वयं भिक्षुणियों के संघ में प्रवेश के मुददें पर अनिच्छुक थे. ये स्वीकृति उन्होंने आनंद के बार बार अनुरोध पर ही दी.