शिक्षा नीति 2020: स्कूल, कॉलेज और प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्रों को यह विश्लेषण जरूर पढना चाहिये
भोपाल। नई शिक्षा नीति 2020 में हुए परिवर्तनों पर बहस तेज हो गई है। नई शिक्षा नीति में कुछ ऐसे परिवर्तन किए गए है, जिन पर समय रहते बहस वो भी तार्किक रूप से बहस होना चाहिये।
करीब 34 साल बाद शिक्षा नीति में परिवर्तन किया गया है। निश्चित तौर पर भाजपा सरकार द्वारा लाई गई नई शिक्षा नीति का स्वागत होना चाहिये।
साथ ही कुछ तीखे सवाल भी पूछे जाना चाहिये।
ये भी देखना चाहिये कि ये नई शिक्षा नीति आम गरीब लोगों के लिए फायदेमंद है भी या नहीं।
ऐसा नहीं हो जाए कि शिक्षा नीति में गरीब और गरीब रह जाये।
उनके लिए शिक्षा इतनी महंगी कर दी जाये कि वो हमेशा हाशिये पर चले जाये।
इन सवालों पर हम आपके लिए एक विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे है।
ऐसा करने का उदेदश्य नई शिक्षा नीति के प्रमुख मुददों पर चर्चा का माहौल बनाना है।
शिक्षा नीति 2020 में विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश पर चिंता नहींं
भारत में विदेशी संस्थाओं के प्रवेश का विरोध कोई नई बात नहीं है। स्वयं भाजपा जब विपक्ष में थी, तो विदेशी शैक्षणिक संस्थानों के भारत में परिसर खोलने तक का विरोध किया था।
पर मनमोहन सिंह की तत्कालीन सरकार इसे सही कदम मानती थी, और इसे आंशिक तौर पर कॉलेज शिक्षा में लागू भी किया गया।
इसका कई प्रायवेट संस्थाओं ने भरपूर लाभ कमाया। वे अंजान विदेशी संस्थाओं के साथ सहयोगी बन कर पढ़ाने और डिग्रियां बांट कर पैसा कमाते रहे।
इस बार मोदी सरकार ने इसे सही मानते हुए नई शिक्षा नीति 2020 में दुनिया के सौ शीर्ष विदेशी विश्वविद्यालयों को प्रवेश देने की बात कही गई है।
वे अपने परिसर भारत में स्वयं खोल सकेंगे या इनकों भारतीय सहयोगियों के साथ स्थापित कर सकेंगे।
इसे लेकर धीरे धीरे विरोध के स्वर उठने लगे हैं, जबकि प्रारंभ में इसका केवल स्वागत किया जा रहा था।
शिक्षा नीति 2020 में विदेशी संस्थाओं के प्रवेश से पूरी शिक्षा व्यवस्था पर कब्जा ना हो जााये
विेदशी संस्थाओं के प्रवेश को लेकर कोई दिक्कत की बात नहीं है। परेशानी देश की कमजोर प्रवृति की है। पूर्व में देखा गया है कि विदेशी उंगली पकड कर पूरी व्यवस्था पर कब्जा किया गया है।
लेकिन इस बार मोदी सरकार ने लगता है, थोड़ी एहतियात बरती है। उसने दुनिया के 100 शीर्ष विश्वविद्यालयों की बात की है।
बात रिसर्च और ज्ञान को बढ़ाने की है। इसलिये अगर सरकार अंडर ग्रेजुएट मामलों को इससे दूर रखे तो यह एक अच्छा कदम ही कहा जाएगा।
नई शिक्षा नीति 2020 में रिसर्च पर जोर नहीं, रह जायेंगे नौकरी तक सीमित
शिक्षा में एक चिंताजनक प्रवृति देखने को मिलती है, कि जिन्हें शिक्षा के क्षेत्र में अवसर मिला उन्होंने किताबों और अध्ययनों से नाता तोड़ने में ज्यादा देर नहीं की है।
वे जो पढ़ चुके हैं उसका उपयोग ही वे करते हैं। नई जानकारी को जुटाने बांटने में उनकी रूचि न के बराबर रहती है।
आप स्वयं देखिये इंजीनियरिंग में डिग्री लेने वाले जिन लोगों को ग्रेजूएट होने के बाद नौकरी मिल जाती है, वे उससे आगे की शिक्षा में रुचि कम ही बताते हैं।
यही बात एमबीबीएस और एलएलबी करने वालों में भी देखने को मिलती है।
जबकि जो भी डिग्री के बाद अमेरिका सहित दूसरे देशों में नौकरी पाते हैं, उनमें ज्यादा शिक्षा तलाश पीएचडी तक जाकर ही नहीं रूकती है ,बल्कि वे रिसर्च तक से संबंध बनाए रखते हैं।
नई शिक्षा नीति 2020 में नौकरशाही को दूर करने का प्रयास नहीं
याद करके देखिये कि प्रधानमंत्री की राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं से जुड़कर रिसर्च को कितना कम रिस्पांस मिला है।
एक और कारण भी है कि उच्च शिक्षा में लग कर समय और पैसा लगाने के बाद भी प्रमोशन, पद और प्रतिष्ठा में भरपूर प्रतिसाद नहीं मिलता हैं।
इससे ज्यादा तो अनुभव के नाम पर ही मिल जाता है। वैसे देश की नौकरशाही भी प्रतिभाशाली युवाओं के राह में कम बाधाएं पैदा नहीं करती हैं, जिससे प्रतिभा पलायन को बढ़ावा मिलता है।
सरकारें इसे विदेशों में काम करने से देश को मिलने वाले पैसे की आड़ लेकर बेशर्मी से इस विफलता को छिपा लेती है।
इन सारी बीमारियों को शिक्षा नीति से नहीं सुलझाया नहीं जा सकता है।
लेकिन इन्हें उठाने का यह एक उचित समय है, इसलिये इन्हें उठाने की मंशा पर सवाल भी नहीं उठाए जाने चाहिये।
शिक्षा नीति 2020 में जीडीपी के छह प्रतिशत खर्च की सिफारिश
कोठारी कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर 1968 की शिक्षा नीति में जीडपी के छह फीसदी खर्च की सिफारिश की गई थी।
वह 2020 की नई शिक्षा नीति 2020 में भी सिफारिश ही है। क्यों, यह सवाल दिल्ली के शिक्षामंत्री मनीष सिसोदिया और अन्य कई लोगों ने उठाया है।
जब न्यूनतम राजस्व घाटे का कानून बन सकता है, तो यह क्यों नहीं कहा जा सकता कि केन्द्र और राज्य सरकारें अपने बजट में कम से कम छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करेंगी।
हो सकता है यह अभी कहीं कहीं या सब जगह हो रहा हो, पर फिर भी इस पर चर्चा तो होनी चाहिये।
मनीष सिसोदिया ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में उठाए नई शिक्षा नीति पर सवाल
आज के शिक्षक पर नीति मौन
इसी प्रकार का एक और एक दम सही मुद्दा मनीष सिसोदिया और दुसरे लोग उठा रहे हैं। वह है कि चार साल का बीएड सही कदम है, पर वो भविष्य के शिक्षकों की बात है।
आज कम से कम जो लाखों शिक्षक हैं, उनके प्रशिक्षण की बात तो तुरंत की जा सकती हैं। आज के शिक्षकों की योग्यता को तो तुरंत परखा जा सकता है।
जा शारीरिक या मानसिक क्षमताओं के हिसाब से अयोग्य हैं, उन्हें तो तत्काल छांटा जा सकता है। इसमें देरी क्यों?
शिक्षकों को राजनीति से दूर करे
यह सवाल तो उठना ही चाहिये कि शिक्षकों को कम से कम आठ घंटे स्कूल में रखा जाए।
जो सरकारी शिक्षक होते हुए भी राजनीति में भाग लेकर या अन्य गतिविधियों में संलग्न होकर अराजकता और अव्यवस्था का कारण बन रहे हो, उनको तो सही राह पर लाया जाना चाहिये।
इस बारे में शिक्षा नीति एक दम मौन है। हालांकि यह नियमन का विषय है, लेकिन इसे शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी बीमारी भी कहा जा सकता है।
इस पर तो नीति में खामोशी उचित नहीं है। शिक्षा में खासकर मिडिल और प्राथमिक शिक्षा में क्या यह कम दुभाग्यपूर्ण नहीं है कि शिक्षक किताबें छुना तक भूल जाते हैं।
भाषा के चयन को सराहा जा रहा
नई शिक्षा नीति में विषय चयन की आजादी को जी भर कर सराहा जा रहा है।
कालेज शिक्षा में यह बड़ा कदम है, पर अति उदारीकरण के खिलाफ आवाज उठाकर मनीष सिसोदिया और दूसरे लोग देश की शिक्षा व्यवस्था पर एक बड़ा उपकार कर रहे हैं।
यह सही सही है कि जिन संस्थानों की विशेषज्ञता एक क्षेत्र विशेष में है उनमें दूसरे विषय के अध्यापन की बात करना सही नहीं है।
हां यह कर सकते हैं कि वहां के छात्रों को विभिन्न विषयों के एक एक या दो दो प्रश्नपत्र करने को कहा जाए। पर ज्यादा नहीं।
बल्कि होना तो यह चाहिये कि सभी विश्वविद्यालय किसी न किसी विषय के लिये एक खास पहचान बनाएं। कोशिशे तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की होनी चाहिये।
मोदी सरकार का कमजेार स्टेंड
एक बात फिर दोहराना चाहूंगा, और बार बार दोहरा भी रहा हूं कि मोदी सरकार ने शिक्षा के माध्यम पर सही सही पर कमजोर स्टैंड लिया है।
उसे बिना लागलपेट के अपनी बात कहने का साहस उसी प्रकार बताना चाहिये था, जो उसने नोटबंदी में बताया। सही या गलत जो कुछ भी है हमने किया तो।
जो गलियां और चोर दरवाजे छोड़े उनके चलते किये धरे पर पानी फिरने की आशंका तो उठती है, जो बहस और विवाद के तूफान की आशंका थी, वह भी सही नजर आ रही है।
हिंदुस्तान में अंग्रेजी के पक्ष में तूफान
नई शिक्षा नीति 2020 में घरेलू भाषा में शिक्षा देने की बात क्या कहीं, हम तो उबल गए।
गजब हैं हम हिंदुस्तानी। अंग्रेजी को लेकर ऐसे लड़ रहे हैं, जैसे किसी ने हम से हमारी जुबान छिन ली हो?
जैसे किसी ने हमारे रोजगारों के अवसरों पर डाका डाल दिया हो। यह वह गुलामी है, जिसकी बेड़ियों में हमें हमेशा अंग्रेजों का गुलामों बनाने के लिये बनाया था।
उसकी गजब की दूरदृष्टि थी जो पंडित नेहरू जैसे महाज्ञानी भी गच्चा खा गये। आधी रात को भी संसद में जो भाषण दिया वह अंग्रेजी में था।
गांधी ने कहा था दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी नहीं जानता है
संविधान के मसविदा भी अंग्रेजी में था। राष्ट्रभाषा के प्रस्ताव में भी बेड़ी डाल दी और कहा दस साल तक अंग्रजी संपर्क भाषा रहेगी।
आज सत्तर साल बाद भी कागजों पर हिंदी राष्ट्र भाषा है और देश की जुबान अंग्रेजी बनी हुई है।
जिसे आज भी शायद दस फीसदी से ज्यादा लोग नहीं जान पाते हैं।
विडंबना उससे ज्यादा गहरी है। गांधी ने कहा था दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी नहीं जानता। शायद उनके स्वदेशी नजरिये ने इस समस्या को परख लिया था।
मूंह पर हिन्दी और दिलों में अंग्रेजी
गांधी के गांधीवाद के नाम पर मलाई चाट रहे कांग्रेसी अंग्रेजी के पक्ष धर ज्यादा हैं।
वे जनता के बीच हिंदी के गीत गाते हैं, पर उनके बेटे पोते अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते हैं।
विडंबना है, लोहियावादी मुलायम सिंह नारे तो अंग्रेजी छोड़ों के लगाते हैं, पर अपने बेटों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाते हैं।
आरएसएस भले ही हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान का नारा राष्ट्रवाद की मजबूरी के चलते लगाता है।
लेकिन जरा उनके पदाधिकारियों के बच्चों पर नजर डालें, तों पता चलेगा गिनती के ही हिंदी मीडियम में हैं। ज्यादातर तो अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में हैं।
घर में काम वाली बाई भी चाहती है कि बच्चा अंग्रेजी में पढाई करे
दूर मत जाइये जनता की समझ में अंग्रेजी माध्यम की मान्यता इनती मजबूत है, कि कई काम वाली बाईयां भी दूसरों के घरों में अनिच्छा से इसलिये काम करती हैं।
ताकि वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेज कर उनकी फीस चुका सके।
मनोविज्ञान को नेता से बेहतर कोई नहीं समझता है
जनता के इस मनोविज्ञान को नेताओं से बेहतर कोई नहीं समझता है।
जरा जान लें कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने पायलट प्रोजेक्ट के तहत कुछ ब्लाकों में सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम पढ़वाना शुरू किया है।
ममता बनर्जी ने माकपा के खिलाफ इसी अंग्रेजी को हथियार बनाया था, और उस वक्त चुनावी सभाओं में एक कविता बंगला कविता का एक पैराग्राफ पढ़ती थी। हम बंगला में पढ़ते हैं और छोटी छोटी नोकरियों के लिये भटकते हैं।
वहीं माकपा नेताओं के नेताओं के बच्चे अंग्रेजी में पढ़कर लंदन जाते हैं और बेरिस्टर बनते हैं।
जापान, जर्मनी, इटली, रूस ने अपनी भाषा के दम पर विकास किया
शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिये। उसी में विद्यार्थी सही तरह से समझता है। उसकी सृजनात्मकता और मौलिकता का विकास होता है।
गैर अंग्रेजी भाषी देशों जापान, जर्मनी, इटली, रूस ने इसी के बल पर विकास किया है। इसलिये शिक्षा का और खासकर शिशु शिक्षा, बाल शिक्षा, प्रायमरी शिक्षा का माध्यम तो अनिवार्य रूप से मातृभाषा हो।
हालात की मजबूरी हो तो स्थानीय भाषा और क्षेत्रीय भाषा को अपना लें। अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा कतई नहीं। हिंदी का भी इसमें खुलकर साथ नहीं दिया गया है।
उसे भी तभी स्थान मिलेगा जब वह स्थानीय और क्षेत्रीय भाषा की मजबूरी की स्थिति आये। अन्यथा मराठी, बंगला, तमिल ही ठीक है।
बडे शिक्षा ग्रुप को छुट
नई शिक्षा नीति में घरेलू भाषा में शिक्षा देने की बात दृढता से कही गई है, पर बडे स्कूल ग्रुप चलाने वाले इसे कैसे पचा पाएंगें।
इसी लिये पतली गली उनके लिये खोलते हुए छूट दी गई है और निजी स्कूलों की चर्चा तक से बचा गया है।
नेता और नौकरशाह भी इसी गली ने अपने लोगों को निकाल ले जाएंगें।
मोदी सरकार सभी को शासकीय शिक्षक नही बना सकती तो जो लाखो प्राइवेट टीचर्स है उनके भविष्य औऱ कल्याण के लिए क्या प्रभदान है। उन्हें भी सामाजिक आर्थिक सुरक्षा मिलनी चाहिए। इसके लिए क्या उन्हें सरकारी भत्ता एवं खाद्य सुरक्षा राशन की सुविधा नही मिलनी चाहिए। रेल में यात्रा पर छूट नही दी जा सकती। साथ ही बिजली, पानी, आवास की निशुल्क व्यवस्था नही मिलनी चाहिए। उनके बच्चों की पढ़ाई का खर्च क्या सरकार नही उठा सकती । पेंशन भी नही दी जा सकती क्या।
विचार कीजिये मोदी जी।