क्या नई शिक्षा नीति नई जमीन तोड पाएगी ?
भोपाल। ऑनलाइन डेस्क।
सुरेश उपाध्याय
नई शिक्षा नीति 2020 में मानव संसाधन प्रबंधन मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया है।
इसके साथ स्कूली शिक्षा के लिए कक्षा पांच तक मातृभाषा / स्थानीय भाषा / क्षेत्रीय भाषा मे शिक्षा देने की बात कहीं गई है।
वहीं तीन भाषा फार्मुला, 5+3+3+4 की नई शैक्षणिक पाठ्यक्रम संरचना, जिसमे प्रथम पांच वर्ष मे 3 वर्ष से 5 वर्ष के लिए प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षण (आंगनवाडी / बालवाटिका / प्री स्कूल के माध्यम से) तथा कक्षा एक व दो को सम्मिलित किया गया है।
आगे के तीन वर्ष कक्षा 3 से 5, उसके आगे के तीन वर्ष कक्षा 6 से 8 तथा अगले चार वर्ष कक्षा 9 से 12 तक सम्मिलित रहेगी।
कक्षा 6 से ही व्यावसायिक शिक्षा, राज्य विधालय नियामक प्राधिकरण व बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन की स्थापना की मांग की गई है।
क्या नई शिक्षा नीति में विदेशी विश्वविदयालयों को भारत में कैम्पस खोलने की अनुमति देना सहीं है?
उच्च शिक्षा के क्षेत्र मे विदेशी विश्वविधालयों को भारत मे केम्पस स्थापित करने की अनुमति दी गई है।
बहुविषयक उच्च शिक्षा संस्थान बनाने, तीन से चार वर्ष के स्नातक पाठ्यक्रम, जिसमें बीच में पाठ्यक्रम छोडने की सुविधा के साथ एक वर्ष पर सर्टिफिकेट, दो वर्ष पर एडवांस डिप्लोमा, तीन वर्ष पर स्नातक डिग्री तथा चार वर्ष पर शोध स्नातक की सुविधा दी गई है।
क्या नई शिक्षा नीति में एम फिल समाप्त का निर्णय सहीं है?
नई शिक्षा नीति में एम फिल समाप्त, 15 वर्षो मे महाविधालयो की सम्बद्धता समाप्त तथा चरणबद्ध स्वायत्ता, भारतीय उच्चतर शिक्षा आयोग (मेडिकल व कानूनी को छोडकर) का गठन किया जायेगा।
राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन, एकेडेमिक बैंक आफ क्रेडिट ( उच्च शिक्षण संस्थाओ मे प्राप्त अंको या क्रेडिट को डिजिटल रूप मे सुरक्षित करने के लिए तथा अलग-अलग संस्थानों में छात्रों के प्रदर्शन के आधार पर डिग्री प्रदान करने के लिए ), “ परख “ नाम से राष्ट्रीय आकलन केंद्र की स्थापना की जायेगी। क्षेत्रीय भाषा मे भी ई-कंटेंट करने की बात प्रमुखता से कही गई है।
क्या नई शिक्षा नीति में वास्तव में जीडीपी का छह फीसदी खर्च होगा?
सकल घरेलु उत्पाद का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर भारत को वैश्विक ज्ञान शक्ति बनाने की बात कही गई है।
वर्तमान मे 2 प्रतिशत से कम खर्च किया जा रहा है। लंबे समय से शिक्षा पर जीडीपी के छह फीसद खर्च करने की बात कहीं जा रही है।
पूर्व में भी इस तरह की सिफारिश की गई है।
क्या नई शिक्षा नीति में पूर्व की कमेटियोंं के सुझाव लिए गए है?
इतनी जद्दोजहद के बाद आई, यह नई शिक्षा नीति क्या क्रांतिकारी बदलाव ला सकेगी, इस पर विचार के पूर्व ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि का सिन्हावलोकन जरूरी है।
1948 में डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविधालय शिक्षा आयोग के गठन के साथ स्वतंत्र भारत मे शिक्षा प्रणाली को व्यवस्थित करने का काम शुरू हुआ था।
1952 मे लक्ष्मीस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता मे गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा 1964 मे डा. दौलतसिन्ह कोठारी की अध्यक्षता मे गठित शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन के आधार पर 24 जुलाई 1968 को भारत की प्रथम शिक्षा नीति घोषित की गई थी।
मई 1986 मे नवीन शिक्षा नीति लागू की गई थी। 1990 मे आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता मे एक समीक्षा समिति गठित की गई थी।
जिसके प्रतिवेदन के आधार पर 1992 मे शिक्षा नीति में कुछ संशोधन किये गये थे।
1992 में विधार्थियो के अकादमिक भार को कम करने के लिये प्रो. यशपाल की अध्यक्षता मे एक समिति का गठन किया गया था।
2009 मे प्रो. यशपाल की ही अध्यक्षता मे गठित समिति ने उच्च व तकनीकी शिक्षा के लिये अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था।
कस्तुरीरंगन रिपोर्ट की काफी आलोचना हुई
वर्ष 2014 मे मानव संसाधन मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी ने एक वर्ष में नई शिक्षा नीति बनाने की घोषणा की थी।
यह अवधि बीतने के बाद भी नीति जारी नही हुई और उनका मंत्रालय ही बदल गया।
वर्ष 2017 में मंत्री प्रकाश जावडेकर ने अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता मे नौ सदस्यीय समिति का गठन किया।
कस्तुरीरंगन रिपोर्ट की काफी आलोचना हुई और सरकार का कार्यकाल पूरा होने तक शिक्षा नीति नही बन पाई।
वर्ष 2019 मे नई सरकार के मंत्री रमेश पोखियाल निशंक ने एक मसौदा जारी कर देश भर से सुझाव आमंत्रित किए और प्रक्रिया को फिर से दोहराया गया।
दिसम्बर 2019 मे एक मसौदा तैय्यार हुआ जिसके आधार पर यह नीति घोषित की गई। घोषणा के पूर्व आन लाइन शिक्षा को ऐन मौके पर जोडा गया है।
विसंगतियो को दूर किया जा सकेगा
नई शैक्षणिक संरचना मे 3 वर्ष से 18 वर्ष की आयु सीमा को शामिल करने से शिक्षा ग्यारंटी कानून की 6 से 14 वर्ष आयु सीमा की विसंगतियो को दूर किया जा सकेगा।
मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा का प्रस्ताव अच्छा है,ख् लेकिन ऐच्छीक बनाकर इसे विरल कर दिया गया है।
जबकि इसे अनिवार्य करके कक्षा बारहवी तक विस्तारित करने की आवश्यकता थी।
जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च का सुझाव कोठारी आयोग ने दिया था
शिक्षा व्यय को सकल घरेलु उत्पाद का 6 प्रतिशत करने का विचार स्वागत योग्य है।
यह डा. डी एस कोठारी आयोग का बहुत पुराना सुझाव है। बजट आवंटन मे इसकी परीक्षा हो सकेगी।
खर्च किस तरह से किया जा सकेगा इस पर कोई जानकारी नीति में नही है।
यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इसका प्रत्यक्ष व परोक्ष उपयोग निजी क्षेत्र को फंडिंग के लिए नही हो।
शिक्षा नीति भेदभाव और विषमता को बढायेगी
नर्सरी से लेकर स्नातकोत्तर तक बहुस्तरीय शिक्षा प्रणाली स्थापित हो चुकी है अर्थात जैसी हैसीयत वैसी शिक्षा – जो समानता व सामाजिक न्याय के संविधान के मूलभूत अधिकारो के विरूद्ध है।
अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछडा वर्ग व मुस्लिम आबादी का 90% से अधिक हिस्सा आज भी शिक्षा से वंचित है।
महंगी व भेदभावपूर्ण शिक्षा नीतियों के परिणाम स्वरूप प्राथमिक शिक्षा मे दाखिला प्राप्त 96.5 % बच्चो की संख्या घटकर माध्यमिक शिक्षा मे 60% व उच्च शिक्षा मे 20 % रह जाती है।
नई शिक्षा नीति इस भेदभाव व विषमता को कम करने के बजाए विदेशी व निजी क्षेत्र को ही बढावा देने की दिशा मे अग्रसर दिखाई देती है।
सभी उच्च शिक्षा संस्थानो को बहुविषयक बनाने तथा विषय बदलने की गुंजाइश से दक्षता कैसे हासिल होगी ?
महाविधालयो की सम्बद्धता समाप्त करने व स्वायत्ता प्रदान करने का विचार समान गुणवत्ता की शिक्षा मे बाधक होगा।
जब भारत की बडी आबादी में है, तब ऑन लाईन शिक्षा विषमता बढाने जैसा
आन लाइन शिक्षा के नकारात्मक पहुलूओ पर विचार किए बगैर आखिरी क्षणों में जोडने से ही इसके प्रति गम्भीरता का अभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
भारत की बडी संख्या में गरीब आबादी को इंटरनेट, कम्प्यूटर, स्मार्ट फोन सुविधा ही उपलब्ध नही है।
ऐसे में आनलाइन शिक्षा भेदभाव व विषमता को बढाने के साथ निजी व विदेशी क्षेत्र के लिए मुनाफे के नए मार्ग प्रशस्त करेगी।
कोविड 19 की महामारी के परिप्रेक्ष्य मे इसको जोडा गया लगता है।
लेकिन इस महामारी के परिप्रेक्ष्य मे पडोसी स्कूल प्रणाली को अनिवार्य करने की जरूरत ही नही महसूस की गई है।
शिक्षा को व्यवसाय बनाना सहीं नहीं
बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान का विचार शिक्षा को संकीर्ण करने का उपक्रम है तथा शिक्षा को सिर्फ व्यवसाय तक सीमित करने का ध्येय शिक्षा के बुनियादी उद्देश्य से ही संगत नही है।
शिक्षा के माने मनुष्य को विचारशील बनाना व संस्कारित करना है। प्रकृति को समझने तथा तार्किक व वैज्ञानिक दृष्टि से आगे बढने की समझ विकसित करना ही शिक्षा का उद्देश्य है।
शिक्षा सभ्यता व संस्कृति के निर्माण व विकास मे सहायक होती है तथा मानव को श्रेष्ठ बनाने का महत्वपूर्ण उपक्रम है।
यह नीति सिर्फ व्यवसाय तक शिक्षा को बांधकर सर्वांगिण विकास मे अवरोधक दिखाई देती है।
शिक्षा का नैगमिकरण, निजीकरण, विदेशीकरण, व्यवसायीकरण, सरकारी शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करना, साधारण व गरीब बच्चों को शिक्षा से वंचित करना और बच्चों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी से पीछे हटना ही इस शिक्षा नीति का निहितार्थ दिखाई देता है।