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बच्चे के भविष्य को तबाह करना इन स्कूलों के दाएं हाथ का खेल… 

बच्चे के भविष्य को तबाह करना इन स्कूलों के दाएं हाथ का खेल… 

– पीरियॉडिक टेस्ट या फ़ी वसूली मैकेनिज्म!, माता पिता कर्ज के फेर में 

-कोरोना काल में स्‍कूलों का वसूली अभियान निर्बाध रूप से जारी रहा

गणेश दत्त, स्वतंत्र टिप्पणीकार, सोर्स सोशल मीडिया

एक जमाना था, जब अर्धवार्षिक और वार्षिक परीक्षाएं हुआ करती थी। पर अब विद्या के आधुनिक मंदिर या यों कहें कि मॉडर्न मनी मेकिंग कम स्टडी सेंटर यानी प्राइवेट स्कूलों में हर दो महीने में पीरियॉडिक टेस्ट होने लगे हैं।

प्राइवेट स्कूलों में होनेवाले इन नियमित टेस्टों का अंदाज़ निराला है। पहले के दौर में परीक्षाओं का नाम सुनते ही छात्रों की नींद हराम हो जाती थी। परन्तु इन पीरियॉडिक टेस्टों का नाम सुनते ही पैरेंट्स की नींद गायब हो जाती है।

इन पीरियॉडिक टेस्टों के कुछ दिनों पूर्व से टीचर महोदय पढ़ाते कम है लेकिन छात्रों के बहाने पैरेंट्स को धमकाते रहते हैं कि स्कूल फीस बाकी नहीं रहना चाहिए,  वरना परीक्षा में नहीं बैठ पाओगे।

छात्र भी एक सभ्य और अनुशासित संदेशवाहक की तरह पूर्ण समर्पण और श्रद्धाभाव से इन सदेशों को अपने माता-  पिता तक पहुंचा कर निश्चिंत हो जाते हैं। छात्र  टेंशन मुक्त और पैरेंट्स टेंशन युक्त।

दीगर यह हैं कि कोरोनावायरस जी की मौजूदगी में लगे लोकडाउन में भी इस पीरियॉडिक टेस्ट की धमक से स्कूलों का वसूली अभियान निर्बाध रूप से जारी रहा।

बच्चे के भविष्य का डर और प्रिंसीपल के रौब के खर्चे 

 आखिर प्राइवेट स्कूल प्रबंधन भी क्या करें? उसका प्रथम लक्ष्य तो संसाधनों का प्रबंधन ही हैं ज्ञान का वितरण तो अंतिम लक्ष्य! टीचर की सैलरी, प्रिंसीपल के रौब के खर्चे, डायरेक्टर को लाभ की सौगात, बिल्डिंग के खर्चे, अन्य स्कूली स्टाफ के वेतन आदि भी तो उसे देने हैं।

स्कूल ड्रेस, किताबों के कमीशन तो स्कूल के तड़क –  भड़क में ही गायब हो जाते हैं। स्कूल में एडमिशन के समय तथा वार्षिक उन्नति के शुल्क तो स्कूल मालिकान के बैंक खातों को ही सुसज्जित करने में खर्च हो जाते हैं।

बच्चे के भविष्य के लिए अब बेचारे पैरेंट्स! उधार लें या गहने गिरवी रखें या खेत बेचे 

 इन पीरियॉडिक टेस्टों के बहाने से ही जो मासिक धन की वसूली होती है उसी से स्कूल चल पाता है! क्या किसी की औकात हैं, जो इन मासिक शुल्कों को समय पर ना भर पाए?

बच्चे के भविष्य को तबाह करना इन स्कूलों के दाएं हाथ का खेल हैं। अब बेचारे पैरेंट्स! उधार लें या गहने गिरवी रखें या खेत बेचे लेकिन स्कूल फीस में बिलंब तबाही का कारण बन सकता है।

स्कूल प्रबंधन की धमकी का ऐसा अंदाज होता है कि अच्छे – अच्छे सूरमाओं के पसीने उतर जाए। ऐसा महसूस होता है कि देश के उस हिस्से में जिस सीमा में स्कूल स्थित है वहां पर स्कूल प्रबंधन की संप्रभुता की गारंटी मिली हुई है।

ट्यूशन के बाद भी बच्चे के भविष्य की चिंता  

एक जमाने में स्कूल की पढ़ाई काफी हुआ करती थी। परन्तु आज के दौर में चाहे कितना भी स्तरीय प्राइवेट स्कूल हो, यदि ट्यूशन ना हो या पैरेंट्स ध्यान नहीं दे तो बच्चों की हालत खराब। यदि पैरेंट्स इसकी शिकायत करें तो प्राइवेट स्कूल प्रबंधन से इतनी दलीलें मिलेंगी कि अच्छे – अच्छे विधिवेत्ता गश खाकर गिर पड़े।

सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से कुतरते है पालकों की जेब

सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से भी  पैरेंट्स की जेब कुतरी ही जाती है। इन सांस्कृतिक कार्यक्रमों से बढ़ती स्कूल की प्रतिष्ठा हैं। परन्तु तैयारियों का ठीकरा फूटता हैं बेचारे पैरेंट्स के माथे पर।

बच्चों का भविष्य संवारने की ललक, गलाकट प्रतिस्पर्धा के दौर में सहमे पैरेंट्स को क्या क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं यह तो पैरेंट्स का बेचारा मन ही जानता है! और तुर्रा हर दो माह पर पीरियॉडिक टेस्ट के वसूली अभियान की दहशत।

मां लक्ष्मी मेहरबान ही तो कोई बात नहीं। यदि मां लक्ष्मी नाराज है तो पैरेंट्स हलकान। स्कूल प्रबंधन से किसी रहम की उम्मीद किसी भी हालत में संभव नहीं। 

अफसर भी स्‍कूलों के मामले में उदासीन

आश्चर्य इन प्राइवेट स्कूल पर किसी की क्या मजाल जो नजर भी डाल लें। रसूखदारों के संरक्षण में फल –  फूल रहे ये स्कूल बिंदास अंदाज में चल रहे। ऐसा नहीं कि सरकार को इस आतंक के बारे में जानकारी नहीं है।

सरकार ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत कई सारे प्रावधान लागू किए। यदि इन प्रावधानों की कसौटी पर स्कूलों को परखा जाए तो शायद 1 से 2% स्कूल ही पास जो पाएं और वह भी शायद ग्रेस मार्क्स के बलबूते।

जिलों के अफसरान जिन पर इस अधिनियम के क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारियां हैं वो भी उदासीन रहते हैं। हालांकि,  ये पब्लिक है सब जानती है, पर अफसरान की मजबूरी या बेबसी तो अफसरान ही जाने!

शासन की प्राथमिकता में शिक्षा निचले पायदान पर 

परन्तु हक़ीक़त तो यही है कि पैरेंट्स को संसाधनों के प्रबंधन पर मंथन मनन तो करना ही होगा। क्योंकि आज के दौर में सरकारी स्कूल की दयनीय स्थिति से सभी वाकिफ हैं।

उस पर तुर्रा सरकारी स्कूलों के शिक्षकों पर सौंपी जाने वाली अनगिनत जिम्मेवारियां। जिनके निर्वहन नहीं होने पर सवैतनिक टाइम पास का अवसर भी बंद हो जाएगा।

कोरोना काल हो या चुनाव, आपदा काल हो या जनगणना काल। अतिशय कार्य बोझ से लदे इन शिक्षकों के पास पढ़ाने का समय मिले तब तो। इसके अलावा रोज देश में कई तरह की घटनाएं घटित होती रहती है  उसका विश्लेषण भी तो करना होता है।

इन सरकारी स्कूलों को सही रखने की ज़िम्मेदारी जिन अफसरान पर होती है उनके पास भी तो कार्यों का अंबार हैं। शासन की प्राथमिकता में भी शिक्षा शायद निचले पायदान पर ही हैं।

एक समय कम खाना खाओ, पर फीस समय पर भरो

ऐसे में पैरेंट्स बच्चों को कहां भेजें? प्रतिस्पर्धा की बढ़ते स्टैंडर्ड को देख कर, वे भी दहशत में आ जा रहे। उनकी भी ख्वाहिश होती है कि उनके नौनिहाल जब दुनिया की जंग में उतरे तो ज्ञान की अलमारी पर्याप्त मजबूत हो।

इसलिए उन्हें अपने संसाधन प्रबंधन के कौशल को मजबूत बनाना होगा। भले एक समय खाना ना खाइए, दवा मत खरीदिए, पुराने कपड़ों से कम चला लीजिए, रहने के लिए घर मत बनाइए, त्योहार मत मनाएं लेकिन फीस के  मामले में स्कूल प्रबंधन के निर्देशों का ससमय पालन सुनिश्चित करना होगा।

इसके सिवा और कोई चारा नहीं है। यही  व्यवस्था है। यही समय का तेवर हैं।  इस महान वाक्य को सदा सर्वदा ध्यान में रखें ‘ सही समय पर फीस का भुगतान एक सभ्य पैरेंट्स की पहचान है’। इसलिए सभ्य पैरेंट्स बनिए क्रांतिकारी पैरेंट्स नहीं। क्रांति से कुछ नहीं मिलने वाला है।

 

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