प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में 75 फीसदी आरक्षण का प्रावधान…
-हरियाणा सरकार की सराहनीय पहल, अन्य राज्यों को भी इस तरह का कानून लाना चाहिये
ओमप्रकाश गौर
हरियाणा सरकार ने स्थानीय युवाओं को रोज़गार देने के लिये सराहनीय पहल की है. उसने दस साल के लिये एक कानून लागू किया है. जिसके तहत प्राइवेट सेक्टर की कंपनियों को 75 फीसदी नौकरियाँ स्थानीय लोगों को देनी होगी. दिलचस्प बात यह है कि इसी प्रकार का कानून मध्यप्रदेश में भी है पर उसकी धमक कहीं सुनाई नहीं पड़ रही है. आशा की जानी चाहिये कि शिवराज सरकार समय रहते जाग जाएगी.
हरियाणा सरकार ने इसे लागू करने के लिये प्रोत्साहन के तौर पर प्रति व्यक्ति 48 हजार रुपया सालाना की सरकारी मदद देने का प्रावधान किया है. यानि सरकार 4 हजार रुपया माह वार की राशि बतौर सहायता कंपनी को देनी होगी. पर जो कंपनी पालन में कोताही बरतेगी उस पर 50 हजार रूपये तक का जुर्माना भी लगाया जा सकेगा. कानून का परिपालन कैसा हो रहा है इसके लिये कंपनी को हर तीन माह में एक रिपोर्ट राज्य सरकार को देनी होगी. राज्य सरकार के अधिकारी भी समय समय पर कंपनी में जाकर ज़मीनी हालात परख कर अपनी रिपोर्ट देंगे जिसके आधार पर प्रोत्साहन या दंड की कार्यवाही होगी. सरकार ने यह छूट जरूर दी है कि यह कानून 25 हजार रुपया माह वार या उससे ज्यादा वेतन पाने वालों पर लागू नहीं होगा. इससे कम वेतन वाले श्रमिक, कर्मचारी और अधिकारी ही इसके दायरे में आएंगे.
यह अभी साफ नहीं है कि वर्तमान में चल रही नई-पुरानी कंपनियों को लेकर सरकार का क्या रुख रहेगा क्योंकि कानून के अनुरूप स्थानीय और बाहरी का अनुपात तत्काल लाना तो असंभव सा प्रतीत होता है. वहीं यह बात भी याद रखनी होगी कि ऐसा कानून लाने वाला हरियाणा पहला राज्य नहीं है. इससे पहले कई दूसरे राज्य भी इस प्रकार का कानून लाकर लागू करवा चुके हैं. जैसे अभी हरियाणा में इसका समर्थन और विरोध चल रहा है उसी प्रकार का समर्थन और विरोध उन राज्यों में भी चला था. पर कुछ समय तक चलने के बाद स्वंय शांत हो गया और वही पुराना ढ़र्रा चलने लगा. अब देखना है कि हरियाणा में इस कानून का क्या हश्र होता है.
लेकिन इसके साथ यह सवाल भी तो उठता है कि हरियाणा और दूसरे राज्यों को इस प्रकार के कानून लाने ही क्यों पड़ते हैं? कंपनियों का कहना है कि उन्हें स्थानीय स्तर पर योग्य स्किल्ड लेबर और कर्मचारी नहीं मिलते हैं इसलिये उन्हें बाहरी लोगों को लेना पड़ता है. यह एक हद तक ही सही है. कंपनियां नहीं चाहती हैं कि बाहरी लोग खासकर राजनीतिक दलों के नेता और अधिकारी उनके काम में दखल देकर यहां काम कर रहे लोगों को लेकर दबाव बना कर व्यवस्था को प्रभावित करें. बाहरी लोगों की तुलना में स्थानीय लोग इस काम में ज्यादा सफल होते हैं इसलिये कंपनियां स्थानीय की उपेक्षा कर बाहरियों को प्राथमिकता देती हैं.
जहां तक स्किल्ड लोगों की बात है राज्य और केन्द्र सरकार स्किल डवलपमेंट के ढ़ेरों कार्यक्रम चला रही है और वर्कफोर्स भी निकल रही है. लेकिन उसके पास अनुभव की तो कमी होती ही है. इसलिये ये लोग कंपनियों के ज्यादा काम के नहीं होते हैं. स्किल डवलपमेंट कार्यक्रमों से पहले भी प्रशिक्षु यानि इंटर्नशिप कार्यक्रम भी तो चलते थे. इन पर न कंपनियां ज्यादा ध्यान दे रही हैं न राज्य सरकारें. कंपनियां इसके तहत युवाओं को कुछ अवधि के लिये अपनी कंपनी में रखकर कार्य अनुभव देती थी. बदले में वजीफा दिया जाता था. इससे स्किल्ड और अनुभवी युवा कंपनियों को मिल जाते थे.
उम्मीद की जानी चाहिये कि प्राइवेट सेक्टर कंपनियां इस कानून को ज्यादा पारदर्शी तरीके से लागू करेंगी और अपने स्तर पर स्किल और अनुभव देने का कोई कार्यक्रम भी हाथ में लेंगी. वहीं राज्य सरकार भी इसके जुमला या झुनझुना बनने से बचाएगी और रोज़गार दिलवाकर अपनी सद्इच्छा का प्रदर्शन करेंगी.