Varun Gandhi Bjp
2021-12-04, 6:20:20 PM
54.6 लाख भारतीयों ने अक्तूबर में अपनी नौकरी गंवा दी, ज्यादातर सब्जियों के भाव अक्तूबर में 14.2 फीसदी तक बढ़े है, इससे पहले भारत की शिनाख्त दक्षिण एशिया के सबसे गरीब मोहताज मूल्क के तौर पर होने लगे, हमें अपनी नीति, राह और सोच बदल लेना चाहिये…
Varun Gandhi Bjp: नंवबर महिने की शुरूआत, में तीन परेशान करने वाली रिपोर्टें आई. 54.6 लाख भारतीयों ने अक्तूबर में अपनी नौकरी गंवा दी. सीएमआईआई के आंकड़ों के अनुसार, विशेष रूप से वर्ष 2016-17 के 15.66 फीसदी की तुलना में 2020-21 में हमारी युवा बेरोजगारी दर 28.26 फीसदी थी. अगस्त 2021 तक देश के सभी रोजगार योग्य युवाओं में से 33 फीसदी के बेरोजगार होने का अनुमान लगाया गया था. दो करोड़ भारतीय सालाना नौकरी के बाजार में प्रवेश कर रहे हैं, जाहिर है कि इसके मुकाबले नौकरियां कुछ ही पैदा हो रही है. रोजी रोजगार के लिहाज से अनौपचारिक क्षेत्र देश में एक स्वभाविक ताकत (बैकअप) है. पर नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन के कारण इसकी भी स्वाभाविकता पर खतरा बढ़ा है. इस दौरान निश्चित रूप से भारत ने एक प्रतिर्स्पधी रेडीमेड गारमेंट उद्योग विकसित करके लाखों रोजगार सृजित करने के अवसर का लाभ उठाया है. खासतौर वर्ष 2019-20 में परिधान निर्यात 27.95 अरब डॉलर का हुआ. यह आंकड़ा बांग्लादेश की बराबरी का है. पर यह संभावना और दरकार के लिहाज से मामूली उपलब्धि है. देश के सूक्ष्म, लघु और मझोले आकार के अनौपचारिक क्षेत्र के उद्योगों को प्रोत्साहित करके बड़ी कामयाबी हासिल की जा सकती थी, क्योंकि यूरोप, कनाडा और अमेरिका के साथ व्यापार सौदों के तहत एक बड़े बजार तक पहुंच की संभावना पहले से है. पर जो हालात है, उसमें सुधार के आसार नहीं दिख रहे हैं.आलम यह है कि वर्ष 2015 से 2019 के बीच भारत का कपड़ा निर्यात लगभग सपाट रहा. जाहिर है कि यह नीतिगत निष्क्रियता का हासिल है. 1.2 करोड़ नौकरियां (तीस लाख प्रत्यक्ष और नब्बे लाख अप्रत्यक्ष, विश्वबैंक 2017) पिछले एक दशक में चीन से बांग्लादेश मे स्थानांतरित हो गयी है. भारत इस अनुकूलता का लाभ उठाता, तो देश में “टेक्सटाइल ईकोसिस्टम” में अपेक्षित सुधार संभव था. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. जो हालात हैं उनमें कानपूर जैसे शहरों में “लाल इमली” जैसी बड़ी मिल जंग खा रही है. ऐसी बड़ी मिलों की यह दुर्दशा बार-बार इस नाकामी की याद दिलाती हैं कि भारत अगला चीन हो सकता था. इस बीच, भारतीयों के लिए दैनिक आवागमन का खर्च जेब पर खासा भारी पड़ रहा है. नवंबर में ज्यादातार शहरों में पेट्रोल की कीमत सौ रूपये प्रति लीटर से उपर पहुंच चुकी थी. ब्लूमबर्ग के इसी साल जून के एक आंकड़े के मुताबिक इंधन की कीमतों में यह तेज उछाल करों में भारी वृद्धि के कारण है.पेट्रोल पर तीन गुना और डीजल पर सात गुना कर बीते सात सालों में बढ़े है. इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग को अपेक्षित तौर पर बढ़ाने से स्थिति में फर्क पड़ सकता है. एक आंकलन के मुताबिक अगर सब कुछ उम्मीदों के मुताबिक रहे, तो 2030 तक देश में तेल के उपभोग को 15.6 करोड़ टन यानी 3.5 लाख करोड़ रूपये तक कम करने में मदद मिलेगी.इस तरह के उपायों के जरिये देश में औसत आय का 17 फीसदी सालाना तक बचाया जा सकता है. इन सबके अलावा देश में रसोई का खर्च बीते कुछ सालों में खुदरा महंगाई बढ़ने से बेतहाशा बढ़ा है. इस साल जनवरी से अक्तूबर के बीच रसोई गैस के दामों में 30 फीसदी का इजाफा हुआ है. इस दौरान खाद्य तेलों के विभिन्न प्रकार की कीमतों में भी भारी वृद्धि हुई है.अकेले देश की राजधानी की बात करें, तो यहां जून 2020 से जून, 2021 के बीच पैकेज्ड सरसों और वनस्पति तेल की कीमत 40 फीसदी तक उछाल आया है. कीमतों में इस अनपेक्षित वद्धि का एक कारण पाम ऑयल के आयात पर निर्भरता है. दिलचस्प है कि बाकी तेल के मामले में भारत 1990 के दशक से ही आत्मनिर्भरता की स्थिति को प्राप्त कर चुका है.कीमतों में वृद्धि की यह स्थिति बायोडीजल को तरजीह देने से भी बनी हैं.जोर इस बात पर भी होना चाहिए कि पाम ऑयल के आयात पर कर-शुल्कों में कमी लाई जाये.साथ ही अगर स्थानीय उत्पाद (खासतौर पर सरसो और सूर्यमुखी के तेल) की खपत बाजार में बढ़ाने के लिए अभियान चलाए जाएं, तो विश्व बाजार से नियंत्रित होने वाली कीमतों से निपटने में कारगर मदद मिलेगी.महंगाई का आलत तो यहां तक पहुंच गया है कि आम इस्तेमाल में होने वाली साग सब्जी के दाम भी बेतहाशा बढ़े है. सितंबर महिने तक 28 रूपये किलो मिलने वाले टमाटर का भाव नवंबर में 54 रूपये प्रति किलो तक पहुंच गया है. ज्यादातार सब्जियों के भाव अक्तूबर में 14.2 फीसदी तक बढ़े हैं.महंगाई के इस प्रसार से नेस्ले, पारले, आईटीसी जैसी कंपनियों के भी रोजमर्रा के इस्तेमाल वाले उत्पाद अछूते नहीं है. पिछले साल नवंबर के मुकाबले एक साल में इनके या तो 20 फीसदी तक दाम बढ़े है या फिर इनकी पैकिंग का वजन और आकार कम हो गया हैं. इन तमाम स्थितियों ने मिलकर भारतीयों को और गरीब बना दिया है. हालात निपटने के लिए इस दौरान भारतीयों ने बडे पैमाने पर निजी कर्ज का सहारा लिया है. कोविड-19 से पहले 2012 और 2018 के बीच, ऋणग्रस्त भारतीय परिवारों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है. 2018 से 35 फीसदी ग्रामीण परिवार 22.4 फीसदी शहरी परिवार कर्ज की चक्की में पिसने को मोहताज हुए. आलम यह हुआ कि औसत ग्रामीण परिवार पर 59,728 रूपये तो औसत शहरी परिवार पर इसके दोगुना कर्ज का बोझ आ गया. परिवारों की खस्ताहाली इस सूरत तक पहुंच गई कि लोगों को घर के जेवर तक गिरवी रखने पड़ रहे हैं. इस तरह के बकाया कर्ज का कोई आंकड़ा अगस्त 2020 से जुलाई 2021 तक चढ़कर 77.4 फीसदी तक पहुंच गया. यह सब देश में गरीबी के एक गहरे और व्यापक दश्चक्र को रच रहा है. इस दुरावस्था का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गरीब भारतीयों की संख्या (जिनकी क्रय शक्ति प्रतिदिन दो डॉलर से कम या उसके बराबर दैनिक आय हो) 2020 में 5.9 करोड़ से बढ़कर 2021 में 13.4 तक पहुचं गई. स्थिति में सुधार के लिए नए सिरे से पहल करनी होगी. खासतौर पर कॉर्पोरेट राहत के बजाय आम लोगों के कर राहत के बारे में सोचना होगा. रिजर्व बैंक को क्रिप्टोकरेंसी पर बहस करने, मूद्रास्फीति नियंत्रित करने पर जोर देने के बजाय रोजगार बढ़ाने की नीति अपनानी होगी. इससे पहले कि भारत की शिनाख्त दक्षिण एशिया के सबसे गरीब और मोहताज मूल्क के तौर पर होने लगे, हमें अपनी नीति, राह और सोच बदल लेनी चाहिये…
लेखक Varun Gandhi Bjp, भारतीय जनता पार्टी के सांसद सदस्य है, और वरिष्ठ नेता है…